जैसे-जैसे कदम उनका जहाँ-जहाँ पर बढ़ता था।
इंकलाब के शोर से अंग्रेजों का दिल कँपता था ॥
कैदी न कोई कैदी रहा इंकलाब तब सबने कहा,
भय से तब अंग्रेजों का कदम-कदम बहकता था॥
एक भी बूँद न उनके आँसू एक पल को भी छलका।
पर उस पल अंग्रेजों का पसीना टप-टप था टपका॥
मौत के मुख में भी वो वतन के दीवाने हँस रहे थे,
पर तब भी अंग्रेजों का दिल बड़ी जोर-जोर से था धड़का॥
जब लाहौर में उस दिन का सूरज डूब रहा था।
इंकलाब के नारे से तब पूरा शहर गूँज रहा था॥
तीन सितारों से सतलुज किनारा चमक उठा था,
और अंग्रेजों का भय से पल-पल कंठ सूख रहा था॥
सोचा था शवों को सतलुज किनारे जला दिया।
और इस बढ़ते जनद्रोह को उन्होंने दबा दिया ॥
पर उन्हें क्या पता था कि पैर पर कुल्हाडी मार ली;
और अपने विनाश का रास्ता खुद उन्होंने बना दिया॥
कवि – अमित चन्द्रवंशी
अति सुंदर
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धन्यवाद…:)
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दीवाना वही जो धुन का पक्का हो
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सही कहा आपने…
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very nice
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Thanks Sudha Ji…😊
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शानदार प्रस्तुति 👍
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बहुत-बहुत धन्यवाद अजय जी…
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उम्दा अमित👌👌👌
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शुक्रिया ज्योति जी…☺
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आजादी के दीवानो को श्रध्दा सुमन अर्पित करती खूबसुरत पंक्तियाँ ! भगत सिंह की याद दिलाती
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रेखा जी ! बहुत-बहुत धन्यवाद…
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अद्भुत उत्कृष्ट सृजन
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आस्था जी बहुत-बहुत धन्यवाद…😊
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