मैं नाहक उसे हमदर्द कहता रहा।
वो पानी मे जहर देके पिलाता रहा।।
और जहर भी उसी की तरह निकला
मिलावटी था वो तकलीफ बढ़ाता रहा।
कमबख्त को जहर की पहचान न थी
और मुझे मेरे नादानी का डर सताता रहा।
न जहर में असर था न पिलाने में कसर थी
पर मुझपर दुआओं का असर मुझे जिलाता रहा।
और मैं पागल खुद को प्यासा समझ बैठा
और उसके जहर से अपनी प्यास बुझाता रहा।
कवि – अमित चन्द्रवंशी
Great poem!
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Thank you so much…
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