दहेज  (कविता)

​जबसे पैदा होती है बेटी, तो एक ही बात होती है जमाने में;
एक बाप लग जाता है तब से दिन रात कमाने में।
कि जैसे भी हो पर दहेज तो कैसे न कैसे जुटाना है;
और अपनी प्यारी बिटिया को उस दहेज से विदा कराना है।

तब बड़ा मुश्किल हो जाता है खुद को संभालना;
और दहेज के असहनीय दर्द से खुद को निकालना।
जब लड़के का बाप कहता है लड़की के बाप से;
कि कुछ शादी के बारे में बातें हो जायें आप से ।
तो लड़की के बाप का दिल बैठ जाता है;
और अचानक से गला सूख जाता है।
धड़कने तब एकाएक तेज चलने लगती है;
और दिल में केवल एक ही बात उठती है।
कि लड़के का बाप अब दहेज की बात करेगा;
न जाने कितनी रकम की माँग करेगा।
न जाने मैं इतनी रकम जुटा पाऊंगा या नहीं;
न जाने कितना कुछ गिरवी रखना पड़ेगा कहीं।
और न जाने कितने ही दिल बैचेन करने वाले;
सवाल घनघोर मन में तब लगते हैं मंडराने।
वो वक्त न जाने कितना कहर ढहाता है;
बस जान न निकले बाकी सब हो जाता है।
एक डरावने सपने से डरावना होता है वो पल;
एक लड़की का बाप सोचे कैसे जाए ये टल।
आँखें चौंधिया देने वाला उजाला भी अंधेरा सा जान पड़ता है;
और बेटी की शादी का सपना किसी डरावने सपने सा लगता है।

अभी तक तो खुशी के पलों में ढूबा था, कि अब वो आराम पाएगा;
और अब तक तो सब ठीक था, लगता था कि रिश्ता हो जाएगा।
तब उसका चेहरा खुशी से झलक उठा था;
बरसों का दुखदायी BP भी normal हो चला था।
मन ने तब जाकर आराम की साँस ली थी;
और गले की सारी खरास मिटी थी।
दूर कही सूरज की किरण दिख रही थी;
और मन में खुशियों की बगिया खिल उठी थी।
कि चलो अब बिटिया की शादी हो जाएगी;
और बार बार दिल टूटने के चक्र से आजादी पाएगी।

पर न जाने ये दहेज की बात कैसे आ गई ;
और स्वर्ग से नरक की बात कैसे छा गई ।
बिटिया को लड़का पसंद आ गया था;
उसके साथ उसका मन सा लग गया था।
अब मैं उससे नजरें कैसे मिलाऊँगा;
और उससे ये कैसे कह पाऊँगा।
कि माफ करना मुझे मेरी बिटिया;
तुझ अनमोल का मैंने मोल न दिया।
मैं तेरा सौदा तय न कर पाया;
और तेरे लिए मैं उतनी रकम न दे पाया।
बेचारी बिटिया ये दर्द कैसे सह सकेगी;
और कितनी बार वो ये जख्म सहती रहेगी।
प्यारी बिटिया है मेरी, कोई वस्तु नहीं है;
मोल लगे उसका ऐसी दुनिया में कोई चीज नहीं है।
और ये दौलत के भूखे, मेरी बिटिया का मोल लगाते हैं;
और दिखावटी शान दिखाने वाले, मेरी बेटी कह के वस्तु सा खरीदते हैं।
ये रिश्तेदारी नहीं बल्कि झूठा मुखौटा पहनी सौदेबाजी लगती है;
और सौदे के बाजार में बेटियाँ यूँ ही दहेज में बिकती है।

और इस तरह निराश एक बाप फिर घर लौटता है;
बिटिया की शादी का सवाल वक्त में खोजता है।
कि कब मेरी प्यारी बिटिया का ब्याह होगा;
और कितने दहेज से दहेज पीड़ा का दाह होगा।

कवि – अमित चन्द्रवंशी

10 thoughts on “दहेज  (कविता)

    • बहुत बहुत आभार ज्योति जी आपका, यदि कोई बिन्दु छूट गया है तो अवश्य बताएँ ताकि कविता की सार्थकता और बढ़ जाए…☺

      Like

Leave a comment